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जीव जनावर

सागर सरहदी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2487
आईएसबीएन :81-267-0408-x

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प्रसिद्ध फिल्मकार सागर सरहदी की उर्दू कहानियों का हिन्दी लिप्यन्तरण

jeev janvar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रसिद्ध फिल्मकार सागर सरहदी उर्दू में लिखते रहे हैं। इस संकलन में पहली बार उनकी कहानियों का हिन्दी लिप्यन्तरण प्रस्तुत हो रहा है। उनकी कहानियों की दुनिया कैसे किरदारों से बनी है ? फिल्मी परिवेश के किरदार तो हैं, पर पूरे संकलन में मामूली जगह घेरते हैं। बाकी में है मुम्बई शहर के तलछट, निम्नवर्गीय, निम्नमध्यवर्गीय, शिक्षक, वकील और पंजाब के ग्रामीण। इन कहानियों में एकाकीपन, यथास्थिति के खिलाफ खीज और गुस्सा। जहाँ वे अपने किरदारों को सहानुभूति देते हैं, वहीं उनके दोमुँहेपन, निष्क्रियता और सहनशीलता को अपनी तंज़ का निशाना बनाता हैं। कई कहानियों में ‘मैं’ अपनी कहानी कहता है। लेकिन यह ‘मैं’ अपने को छिपाता या ढँकता नहीं बल्कि अनावृत्त करता है।

 खुद पर बेरहमी से तंज़ करता है। जहाँ यह मैं’ परोक्ष है, वहाँ भी उसकी उपस्थिति प्रभावशाली है। वे गद्य की भाषा में कविता करने से बाज आते हैं। वे कहानियों में बिम्ब कविता के अंदाज में नहीं लाते बल्कि वे ज़िन्दगी के कतरों से बिम्ब का काम लेते हैं। उनके पास कहानियाँ कहने का फलसफाई अंदाज है जो आज की कहानियों में कम दीखता है। लेकिन यह अंदाज आसमानी फलसफे की तरह हवा में नहीं इतराता, बल्कि वे फिजिक्स से शुरू होकर मेटाफिजिक्स की तरफ बढ़ते हैं। पहले वे अपने घने पर्यवेक्षण से हमें कायल करते हैं फिर उस विवरण की फलसफे की ऊँचाई पर ले जाते हैं।जीव जनावर में अनामवीयता के विरुद्ध सघन चीख है।


उदासी

 

आज फिर मैंने अख़बार छान मारा है और आज भी जीत की ख़बर नहीं छपी। मैं पिछले कई दिनों बल्कि महीनों से अख़बार देख रहा हूँ और ज़हेज-दहन की सारी ख़बरें पढ़ रहा हूँ।
दिल्ली, अहमदाबाद, मुम्बई, कलकत्ता, भिवंडी में जहाँ-जहाँ दुल्हनों को मारा गया है, तेल छिड़ककर जलाया गया है, मैंने सब ख़बरें काट कर जमा कर ली हैं।
रोज़ एक-एक कतरन को देखता हूँ, छूता हूँ, पढ़ता हूँ।
हर कतरन को कई बार पढ़ चुका हूँ। अख़बार की एक एक कतरन दरअसल1 एक औरत है। अपने माँ-बाप की बेटी है जिन्होंने उसका ब्याह रचाया है, दहेज़ दिया है, बहुत अरमानों से ससुराल भेजा है।

और आज वह लड़की, वह औरत इस दुनिया में नहीं है।
मार दी गई है।
जला दी गई है।
ये ख़बरें पढ़कर ही मैंने उसके बारे में सोचना शुरू किया है।
इससे पहले मुझे जीत का कभी ख़याल नहीं आया।
उसकी शादी हुई।
वह चली गई।
यह कोई ग़ैरमामूली2 बात नहीं है। इसमें मेरी सोच शामिल है। यह फ़िक्र मलेरिया की तरह मुझ पर तारी है। मैं हर वक़्त बुख़ार में जल रहा हूँ।

एक लड़की हँसती-बोलती गाती अब इस नगरी में है या नहीं है। ज़िन्दा है या मर चुकी है। यह सानिहा कोई मामूली नहीं है। ज्यों-ज्यों इस बारे में सोचता हूँ, बात और गम्भीर हो जाती है-फिर औरत की जान लेने के लिए एक ज़हेज़ का बहाना ही नहीं चाहिए इस देश में, कोई भी बहाना हो सकता है। ज़मीन का, जायदाद का। फिर मर्द
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1. वास्तव में, 2. असाधारण, 3. विचार

औरत की वफादारी पर शक भी तो कर सकता है। मर्द में खुद मर्द होने की कमी का एहसास-कोई भी बहाना औरत के क़त्ल बन सकता है।
और जब मैं ये बातें सोचता हूँ तो लगता है कि यह मुल्क एक क़त्लगाह है जहाँ औरतों को आए दिन क़त्ल किया जाता है।
फ़ज़ा1 में धुआँ-सा भर गया है, गोश्त जलने की बू, मिट्टी के तेल की बू, कपड़े जलने की बू।
और कुछ आवाज़ें भी शामिल हैं इस फ़ज़ा में।
हल्की-हल्की चीख़ें।


दबी-दबी सुबकियाँ, सिसकियाँ।
लफ़्ज2-‘‘बचाओ !’’-रात के सन्नाटे में उभरता है, दिन के उजाले में आग के शोले की तरह लपकता है।
यह सोच-सोचकर मैं उदास हो जाता हूँ।
और जीत मेरी बीवी भी नहीं है।
बहन भी नहीं।

दोस्त भी शायद नहीं।
बस ज़रा-सा इनसानीयत का रिश्ता था-और इस रिश्ते को कौन मानता है।
उन दिनों जीत का किसी मर्द से कोई तअल्लुक़3 न था। और मैं तन्हा था। लड़की का बिना किसी तअल्लुक़ के रहना हमारे समाज में बहुत मुश्किल है। वह सबकी मिल्कीयत4 समझी जाती है। और मेरे लिए तन्हाई एक अज़ीयतनाक5 हालत है।
‘‘मिलती हो ?’’ मैंने उससे पूछा था।
वह इन दो लफ़्ज़ों का मतलब समझती थी। इन लफ़्ज़ों में प्यार शामिल न था। बिना प्यार के कोई आदमी लड़की से ये अलफ़ाज़ कहे, यह बहुत दर्दनाक6 बात है। एक तरह से यह उस लड़की की, बेइज्जती है।
उसने मेरी तरफ़ देखा, फिर भी कोई जवाब नहीं दिया, उसने हाँ न की।
उस मर्द की हालत का अन्दाज़ा लगाना बहुत मुश्किल है जो किसी लड़की से कहे, ‘‘मिलती हो’’ और वह लड़की हाँ न करे, उसे रिजैक्ट कर दे। शर्मिन्दगी7 का एहसास होता है और फिर उदासी छा जाती है।

उन दिनों जीत हर जगह पाई जाती-थिएटर में, नाटक के शो में, किसी रिहर्सल पर, कभी किसी पार्टी में भी।
वह ख़ूब चहकती रहती जैसे दुनिया को जताना चाहती हो कि वह बहुत खुश है। किसी तरह की परेशानी उसे नहीं है। इसलिए वह हमेशा लोगों में घिरी रहती।
वह एक फ़ैमिली के साथ पेइंग गैस्ट के तौर पर रहती थी। वह अकेली थी इसलिए उसे बहुत फ़ोन आते थे। हर मर्द कुछ-न-कुछ ऑफ़र करता। इस तरह वह

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1.    वातावरण, 2. शब्द 3. सम्बन्ध, 4. सम्पत्ति, 5. यातनाजनक, 6. कष्टजनक, 7. पछतावा

दो-एक ड्रामों की रिहर्सल भी कर रही थी। इस तरह दो-एक फ़िल्मी कांट्रैक्ट भी साइन कर चुकी थी। क्योंकि अभी तक उसका तअल्लुक किसी मर्द के साथ न हुआ था, वह किसी नाम के साथ जुड़ी न थी इसलिए हर मर्द की यह कोशिश थी कि वह उसके हाथ लग जाए।

मैं भी उस भीड़ में शामिल था।
जिस घर में वह रहती थी वहाँ ज़्यादा लोग न थे। पति एक आम-सा आदमी था, छोटा-मोटा बिज़नेस करता था। पत्नी शक्ल की अच्छी थी, एक बच्चा था और लड़के की माँ-अब जीत भी घर का एक फ़र्द समझी जाती थी। अक्सर वह माँ के साथ किचन में रहती। बहू घर का काम-काज कम ही करती।
जीत जब मेकअप के लिए आईने के सामने बैठती तो बहू उसे देखती रहती।
बहू जीत के मेक-अप बॉक्स की छानबीन करती। कभी कोई चीज़ ज़बरदस्ती माँग कर लेती और कभी चोरी कर लेती। पूछने पर मुकर जाती। वह जीत को किसी फ़ोन का मैसेज नहीं देती। जब जीत फ़ोन पर बात करती तो बहू उसके पास आ बैठती और उठने का नाम न लेती। जीत जब घर लौटती तो देर तक दरवाज़ा खटखटाने और घंटी बजाने के बाद दरवाज़ा खोलती।

बहू ज़ाहिरी तौर1 पर उसकी ज़िन्दगी से नफ़रत करती थी कि वह आज़ाद है, उसे कोई रोक-टोक नहीं। आज़ाद होने का मतलब औरतों की डिक्शनरी में गाली होता है। कम-अज़-कम एक बुआय फ्रैंड होना चाहिए। यहाँ तो किसी के फ़ोन आते थे। मगर अन्दर से वह जीत से रश्क2 करती थी। वह उसकी मन-मर्ज़ी नहीं कर सकती। कहीं आ-जा नहीं सकती। उसे कोई फ़ोन नहीं करता। सब्ज़ी ख़रीदने के लिए सास से इजाज़त लेनी पड़ती है। उसका पति था बस। पति भी पति जैसा। कोई ख़ास बात नहीं थी उसमें। उस पर एक बच्चा उसका पल्लू पकड़कर घूमता रहता।

फिर एकदिन अचानक मुझे जीत का फ़ोन आया-ऐसा बहुत दिनों बाद हुआ था। वह इस तरह हँसकर बातें कर रही थी जैसे कुछ हुआ ही न हो लेकिन मैं वह बात न भूला था, मैंने कहा : ‘‘खंडाला चलती हो ?’’
उसने पूछा : ‘‘कब ?’’
ज़िन्दगी में पहली बार लड़की के हाँ करने पर मैं ख़ुश नहीं हुआ था। मैं और वह साथ एक गाड़ी में जाएँगे। मैं उससे कौन-सी नई बातें करूँगा जो पहले किसी से नहीं की हैं ! वही अनगिनत बार दुहराए हुए फ़िक़रे। हमारी साँसें टकराएँगी, जिस्म एक दूसरे को छुएँगे। हमें एक दूसरे से प्यार भी नहीं। मुहब्बत के बिना यह बड़ा अलमनाक3 सफ़र है। दोनों की ज़ात की नफ़ी4 है। इसके अलावा हमने ज्यादा वक्त साथ भी नहीं गुजारा था कि एक दूसरे की आदत हो, ज़रा-सी पहचान हो। हैलो और गुडबाई का ही तअल्लुक़ था हममें। फिर उस इस तरह रज़ामन्द हो जाना हैरानी की बात थी।
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1.    दिखावे के लिए, 2. ईर्ष्या, 3. दुखप्रद, 4. स्वयं का अस्वीकार

वह किस क़तर तन्हा होगी। इस तरह की फ़ोन कॉल्ज़ के बाद वह हँस-हँसकर कितनी बार रो दी होगी। घर में बहू के हाथों तंग और बाहर गुमनाम मर्दों का हुजूम जो चील कौओं की तरह उसके गिर्द मँडलाते रहते हैं। माँ-बाप, भाई बहन का सहारा भी नहीं कोई सखी-सहेली भी पास नहीं जिससे वह दिल की बात कर सके। मर्दों की इस दुनिया में वह अकेली कैसी रह सकती है। कोई चारा नहीं। उसे किसी एक मर्द को चुनना है, लाटरी के टिकट की तरह। राम निकल आए या रावण, उसे एक इम्तिहान1 से गुज़रना है।
स्वयंबर की रस्म भी तो मर्दों की बनाई हुई है। स्वयंबर में तो कोई शर्त ज़रूरी थी, कोई कारनामा लाज़िमी2 था। अब तो इसकी ज़रूरत भी नहीं है। हाँ, सीने पर एक प्राईस टैग लगा होना चाहिए। वह भी कितना सच हो, किसे मालूम।
वह मुझे मुम्बई सैन्ट्रल स्टेशन पर छोड़ने आई थी। कॉटन की एक ढीली-ढाली मैक्सी पहने, वह ख़ाना-बदोश लग रही थी, पाँव में मामूली-सी चप्पल थी।
जीत, तुम भी चलो मेरे साथ दिल्ली।
मज़ाक करते हो ?
नहीं।

सच कह रहे हो ?
हाँ सच कह रहा हूँ।
लेकिन मैं ऐसे कैसे जा सकती हूँ, इन पहने हुए कपड़ों के साथ ?
वहाँ दो जोड़े ख़रीद लेना। दो-चार रोज़ में वापस आ जाएँगे। वाक़िई सच कह रहे हो ?
वाक़िई सच कह रहा हूँ।
लेकिन घर में भी तो मैंने कुछ नहीं कहा।
कौन-सा घर है तुम्हारा-फ़ोन करके बता दो तुम्हारी शूटिंग है या घरवालों ने बुलाया है, मँगनी हो रही है या सीधे शादी का बोल दो।
वापस जाऊँगी तो क्या जवाब दूँगी ?
कह देना डाइवोर्स हो गया। या लड़के ने तुम्हें रिजैक्ट कर दिया, खू़बसूरत लड़की देखकर घबरा गया।

उसने अपनी मैक्सी की जेब में हाथ डाला। रेज़गारी के साथ दस-बारह रुपए थे। उसने नीम-मुस्कराहट के साथ सारी पूँजी मुझे दिखाई। मैंने कहा इतने पैसों में तो वर्ल्ड टूर कर सकते हैं।
प्लेटफ़ॉर्म पर एक सीनियर टी.टी. फ़र्स्ट क्लास के टिकट कन्फ़र्म कर रहा था-मैं सीधा उसके पास गया।
एक्सक्यूज मी, यह मेरी गर्ल फ्रैंड है। मुझे स्टेशन छोड़ने आई है-मैं चाहता हूँ,
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1.    परीक्षा, 2. अनिवार्य
मेरे साथ दिल्ली चले।
पहले वह हम दोनों को हक्का-बक्का देखता रहा। फिर पूछा, आपका सीट नम्बर ?
मैंने अपना टिकट दिखाया। उसने कहा, आप जाइए, मैं वहीं आकर टिकट बना दूँगा।
मैंने जीत से कहा, चलो दिल्ली।
वह अब तक मज़ाक समझ रही थी। लेकिन जब उसे एहसास हुआ कि वह वाक़िई मेरे साथ जा रही है, तो उसने सबके सामने लोगों के हुजूम1 में मुझे गले लगाया, मेरा गाल चूमा-यू आर डार्लिंग-कहा और छलाँग लगाती हुई फ़ोन के पास गई। बात फ़ोन पर कर रही थी, देख मेरी तरफ़ रही थी। एक मिनट में वापस आ गई। एक लफ़्ज़ कहा, डन !
और इस तरह वह ख़ाना-बदोश लड़की कॉटन की एक मैक्सी पहने, कोल्हापुरी पुरानी चप्पल डाले, मेरे साथ दिल्ली रवाना हो गई।

जब टी.टी. टिकट बनाने के लिए हमारे कम्पार्टमेंट में आया, तो बहुत देर तक हँस-हँसकर उसके साथ बातें करती रही। उसको चाय पिलाई। मैं सोच रहा था कि यह लड़की जहाँ जाती है, खुशी बाँटती रहती है। टी.टी. बहुत देर तक ड्यूटी छोड़कर उसके साथ गप्पें मारता रहा।
आप हमारे साथ दिल्ली जा रहे हैं ना ?
नहीं, मेरी डयूटी नहीं।
हाउ सैड-बड़ा मज़ा आता।
जब टी.टी. उसको ‘बॉय’ कहकर उतरा तो मुझे लगा कि दो दोस्त अलग हो रहे हैं। पूरे सफर में वह चहकती रही।
आई कान्ट बिलीव इट !
यू आर डार्लिंग !
यू आर हनी !
यू आर स्वीट !

पता नहीं कितने फ़िक़रों से उसने मुझे नवाज़ा2।
अक्टूबर का महीना था। दिल्ली में ज़रा-ज़रा सर्दी शुरू हो गई थी। शाम को तो ख़ुनकी3 बढ़ जाती थी। मैं अपने दो-चार दोस्तों के साथ कनॉट प्लेस पर गप्पें मार रहा था। अचानक जीत ने झुरझरी ली। वह सर्दी से काँप रही थी। मैं चिल्लाया उल्लू की पट्ठी, क्या हिल-हिलकर कथाकली कर रही हो !
वह अपनी मख़्सूस4 हँसी के साथ सबके सामने बोली, मैं क्या करूँ मैक्सी के नीचे
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1.भीड़, 2.कृपा की, 3.ठंड, 4.विशेष

कुछ भी नहीं ना, ठंड लग रही है।
और मैं उस पर बरस पड़ा कि वह अपना ख़याल नहीं रखती। बीमार हो गई तो मुसीबत आ जाएगी। मैंने अपना पर्स दिया और वह तेज़ी के साथ भागती हुई पर्स लिए निकल गई और डेढ़-दो सौ के ख़ाना-बदोशों के-से कपड़े फुटपाथ से ख़रीदकर वापस आ गई। मेरा पर्स मेरी पिछली जेब में डाल दिया। मैं कपड़े देखकर हैरान रह गया। यह लड़की कितनी सादा है, कितनी बेगरज1 है। ज़िन्दगी इसके साथ क्या करेगी !

मैंने इस तरह की बेग़रज़ लड़की अपनी ज़िन्दगी में नहीं देखी। हमेशा आपका ख़याल रखे। आपकी हर बात माने। आपका जी बहलाती रहे और हर हालत में खु़श रहे। उसकी कोई माँग नहीं। फिर वह बहुत सेहतमन्द2 थी। हर वक़्त घूमना-फिरना, पैदल चलना, सफ़र करना। हर बात के लिए हर वक़्त तैयार-कई बार वह कमरे का किराया न दे पाती और इसका जिक्र3 तक न करती। कभी इत्तिफ़ाक़4 से जिक्र निकल आता तो हँसी में उड़ा देती जैसे यह बेहद गै़रज़रूरी बात है, तवज्जुह5 देने की ज़रूरत ही नहीं।

हम दोनों कार की पिछली सीट पर बैठे थे। मेरा हाथ सीट की पुश्त6 पर फैला था। उसका सिर मेरे बाज़ू पर था। वह मुझे देख रही थी। संजीदा7 नज़र आ रही थी। इस तरह की बातें वह बहुत कम करती थी। ज़्यादा वक़्त हँसी मज़ाक में गुज़ार देती।
‘‘मैं अपनी ज़िन्दगी से बहुत ख़ुश हूँ आजकल। मैं इसी तरह की ज़िन्दगी गुज़ारना चाहती हूँ। मैं कभी शादी नहीं करूँगी। आप मुझे कहाँ मिल गए-पहले क्यों न मिले-मैं आपके साथ इसी तरह रहना चाहती हूँ।’’
उसने सीट से मेरा बाज़ू लिया। फिर मेरे हाथ को अपनी हथेलियों में समेटा। आँखों से छुआ, गालों से मस किया8, फिर होंठों से लगाया।
और वह ख़ामोश हो गई।
आदमी इसके बाद क्या कह सकता है-रोजमर्रा के जीने में ऐसा वाक़िआ9 कहाँ होता है। इस तरह के फ़िक़रे कौन बोलता है आजकल।
हम दोनों की ज़िन्दगी नफ़ी से शुरू हुई थी। मुलाक़ात पर दो ज़ीरों थे। दोनों ज़िन्दगी से नाख़ुश, कशमकश में मुब्तला10, अकेले, तन्हा, मरे हुए इस्तेमाल-शुदा11 आदमी के ख़ाके12, पूरे आदमी भी न थे।

उसके हाँ करने के बाद मैं बहुत ख़ौफ़ज़दा था। एक और रिश्ते की ज़िम्मेदारी, एक और तअल्लुक़ का बोझ। मुझमें अब इतनी हिम्मत न थी कि नए आदमी से राहो-रस्म करूँ। यह जीत की ख़ूबसूरती थी कि उसने मुझे इस सिचुएशन से नजात13 दिलाई।

हम दोनों बहुत क़रीब थे। एक दूसरे की साँसें अपने चेहरों पर महसूस कर रहे थे। मैंने उससे कहा, जीत, तुम क्या सोचकर मेरे पास आई थीं, मुझमें क्या ख़ास बात
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1.    निःस्वार्थ, 2. स्वस्थ, 3. उल्लेख, 4. संयोग, 5. ध्यान, 6. पृष्ठ भाग, 7. गम्भीर, 8. छुआ, 9. घटना, 10, दुविधाग्रस्त, 11. व्यर्थ 12. आकार, 13. मुक्ति

तुम्हें नज़र आई।
वह बहुत देर खामोश रही-फिर बोली, समझना-समझाना बहुत मुश्किल है। आप मुझे अच्छे तो लगते थे लेकिन मैंने आपके बारे में इस तरह का रिश्ता नहीं सोचा था। लेकिन जब मैं आपके साथ खंडाला गई तो आपने जिस तरह मेरा ख़याल रखा, बस मैं पिघल गई। मेरे सिर के नीचे आपका हाथ, बाहर निकलने के लिए कार का दरवाज़ा खोलना, ज़मीन से उठने के लिए हाथ बढ़ाना, उठकर पानी का गिलास पेश करना। अकेली, तन्हा, कटी हुई लड़की के लिए ये तमाम, फ़ुज़ूल, छोटी, बेमानी-सी बातें, उसे मार देती हैं, गुलाम बना देती हैं।

बस वह पहली और आख़िरी संजीदा बातचीत हम दोनों के बीच में हुई।
और अचानक वह ग़ाइब हो गई। जैसे किसी ने उसे सत्हे-जमीन1 से उठा लिया हो, जैसे उसका कत्ल हो गया हो, जैसे दीवारें खड़ी करके उसे क़ैद कर लिया गया हो।
बहुत दिनों के बाद ज़िन्दगी अच्छी लगने लगी थी-पहली बार मुस्तक़्बिल2 ख़्वाब देखने लगा था-हर काम में दिलचस्पी बढ़ गई थी-बहुत लगन और चाव से अपना काम अंजाम दे रहा था-ज़िन्दगी की जद्दो-जिह्द3, रोजमर्रा की मुसीबतों, मायूसियों4 से दो चार होना, अब बहुत मामूली-सी बात नज़र आती। हम रोज़ सुबह एक दूसरे को फ़ोन कर देते। एक दूसरे की मसरूफ़ियत5 से अगाह हो जाते6। फुरसत होती तो मिल लेते। न होती तो दूसरे दिन पर मुल्तवी कर देते।
मेरे कहने पर उसने अपना ख़याल रखना शुरू कर दिया था। खाने-पीने में एहतियात बरतने लगी थी, वर्जि़स करने लगी थी। धीरे-धीरे उसके जिस्म की चर्बी कम होने लगी थी, उसके नुकूश7 तीखे होने लगे थे। कपड़ों के बारे में भी वह अब मुहतात8 हो गई। मेरा ख़याल था कि वह अपने प्रोफ़ैशन में कामयाब हो जाएगी। दियानतदारी, मेहनत और लगन से वह अपने लिए छोटी-मोटी जगह बना लेगी।

वह मेरे साथ देखी जाने लगी थी, इसलिए मर्दों के फ़ोन कम होने लगे थे। मैं उससे मिलने कई बार उसके घर गया। बहू से बातें भी कीं, थोड़ी-सी-तारीफ़9 कर दी उसकी, दो-एक बार अपने साथ उसे हम खाना खिलाने भी ले गए। मैंने जीत और अपने रिश्ते के बारे में बहू से कुछ न कहा लेकिन वह समझ गई कि जीत अब अकेली नहीं है। मैं उसका ख़याल रख सकता हूँ। अगर उसने जीत से बदसुलूकी की तो मुझमें हिम्मत है कि दूसरी जगह का बन्दोबस्त कर लूँ।
मैंने बहू से फ़ोन पर जीत के बारे में पूछा। उसने कहा, वह तो चली गई है। कहने का अन्दाज़ ऐसा था जैसे कोई खुशख़बरी सुना रही हो।
चली गई है, मानी-?
चली गई है मानी चली गई है, सारा सामान उठाकर। अब वह यहाँ नहीं रहती।
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1. धरातल, 2. भविष्य, 3. संघर्ष, 4. निराशाओं, 5. व्यस्तता, 6.जान जाते, 7. नैन-नक्श, 8. सावधान, 9. प्रशंसा
कुछ कहकर गई है ?
नहीं ।
कहाँ गई है ?
मुझे क्या मालूम !
मेरे पास सवालों का अम्बार था-मैं उससे बहुत कुछ पूछना चाहता था; जानना चाहता था, लेकिन उसने फ़ोन रख दिया।
और मुझे जीत का एक लफ़्ज़ याद आ गया। फ़ोन पर जब हमारी बातख़त्म होती तो वह कहती, ‘‘रख दूँ ?’’
यह कोई मौक़ा था कि उसका बोला हुआ लफ़्ज़ याद आए।
अब पहली बार मुझे एहसास हुआ कि मैं जीत के बारे में कुछ ज्यादा नहीं जानता। दोनों ने इसकी जरूरत ही महसूस नहीं की। एक रिश्ता मान लिया था और दोनों मुत्मइन1 थे। वह कहाँ से आई है, उसके माँ-बाप कौन हैं, कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं, उसके बारे में क्या सोचते हैं, उससे कैसा सुलूक करते हैं-कुछ भी तो मालूम नहीं।
और मुझे जैसे चुप लग गई। मशीन की तरह सब काम करता, खाना खाता, शराब पीता, गाड़ी में बैठता, अख़बार पढ़ता, ड्राईवर को हिदायत देता। सब कुछ वैसे ही चल रहा था। कुछ भी तो नहीं बदला था।
 
सिर्फ़ मैंने जीत को खो दिया था।
एक बात का मैंने ख़याल रखा था। घर के ऑफिस और ऑफिस से घर-इसके इलावा मैंने आना-जाना बन्द कर दिया था-न जाने कब उसका फ़ोन आ जाए, कहीं दस्तक सुनाई दे, कोई ख़त कोई ख़बर।

एक दिन किसी ने बहुत ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया। और जीत बहू के साथ अन्दर आई। बहू का चेहरा मुरझाया हुआ था। शायद वह जीत की हालत देखकर रोई होगी।
जीत ने मुझसे कुछ न कहा-बस रोती रही।

देर तक रोने के बाद उसने कहा, मेरे भाई अचानक आधी-रात को कमरे में दाखिल हुए, मेरा सामान उठाया। मुझे ढकेलकर गाड़ी में बिठाया। किसी के घर ले गए और कहा, मेरी शादी तय हो गई है। मेरा बाहर निकलना बन्द कर दिया। बातचीत भी नहीं कर सकती थी। टेलीफ़ोन के पास जाती तो मेरी होने वाली नन्द साथ रहती। बाथरूम में भी वह तक़रीबन मेरे पास रहती। भाई घर में पहरा देते रहे कई दिन तक। और जब मैंने कोई एहतिजाज2 नहीं किया तो वे अपने साथ मुझे बाहर ले जाने लगे।

आज महीनों के बाद मुझे मौक़ा मिला है। मैं बहाना करके आई हूँ कि मेरी कुछ ज़रूरी चीज़ें भाभी के पास रह गई हैं-भाई मुझे इनके यहाँ छोड़ गए और इनको हिदायत3 दे गए हैं कि मेरी निगहबानी करें, मुझे अकेला न छोड़ें।
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1.    सन्तुष्ट, 2. विरोध, 3. आदेश

मेरे पास वक़्त नहीं है। मैं माफ़ी माँगने आई हूँ। मैंने आपको डेज़र्ट किया है, धोखा दिया है। मुझे माफ़ कर दीजिए।
और वह बेइख़्तियार1 रो पड़ी। बहू कुछ दूर बैठी थी। उसकी आँखें भी नम थीं। भाई-बहन, माँ-बाप रिवायत3, रस्मों-रिवाज के हाथों क़ैदी। वह आज़ादी, हँसकर बातें करना, घूमना-फिरना सब झूठ था। उसका ज़ेहन आजाद न था-उसकी अपनी कोई मर्जी न थी, कोई ज़िन्दगी न थी, कोई सोच न थी क्योंकि वह औरत थी।
मैं खिड़की खोलकर देखता हूँ। आसमान पर बादल छाए हैं, उमस है, घुटन है, पानी बरसा नहीं अभी तक।
मैं रोज़ अख़बार पढ़ता हूँ। सारी ख़बरें देखता हूँ। बर्निंग ब्राइड्स की कोई ख़बर नहीं छोड़ता। बहुत दिन, बहुत महीने, शायद बरस गुज़र गए हैं। जीत सत्हे-ज़मीन से उठा ली गई है, ज़मीन ने उसे निगल लिया है।
मैं अख़बार की जमा की हुई एक-एक कतरन देखता हूँ, छूता हूँ, पढ़ता हूँ। हर कतरन एक लड़की है, एक औरत है।
एक लड़की हँसती-बोलती, गाती-घूमती अब इस नगरी में है या नहीं ? ज़िन्दा है या मार दी गई है ?
और यह मुल्क एक क़त्लगाह है।
यहाँ औरत को क़त्ल किया जाता है।
जलाया जाता है।
और जीत मेरी बीवी भी नहीं।
बहन भी नहीं।
दोस्त भी शायद नहीं।
बस ज़रा-सा इनसानियत का रिश्ता है-
और इस रिश्ते को कौन मानता है !!!


समझौता

 


वे खुद अनपढ़ थे, और अगर किसी चीज़ से उन्हें दहशत1 होती तो लफ़्ज़ों2 से सुबह अख़बार पढ़ने से पहले उन्हें दौरा-सा पड़ जाता। बड़ी देर तक अख़बार पढ़ना टालते रहते, जैसे अखबार में छपे, लफ़्ज़, लफ़्ज़ न हों, च्यूँटियाँ हों, जो देखते ही चलना शुरू कर देंगी-सँपोलिए हों जो रेंगना शुरू कर देंगे। कोई जगह उनसे ख़ाली नहीं रहेगी।

मुख्यमन्त्री बनते ही उन्होंने ठान ली कि लफ़ज़ों को किसी तरह मार भगाएँगे। इसके दो रास्ते थे। उनके या तो मानी3 बदल दिए जाएँ या सिरे से उन्हें बेमानी4 कर दिया जाए। वे सिर्फ़ उर्दू जानते थे-इक़बाल5 के बहुत दिलदादा6 थे। फ़ारसी के बहुत से शेर याद थे उन्हें। पुराने वक़्तों के पुराने आदमी थे जिन पर मौजूदा ज़माने की पूरी रियासत का बोझ पड़ गया था। उर्दू-फारसी तो अब तारीख़7 का हिस्सा बनती जा रही थीं। जलसे, जुलूस, तक़रीरें और मुशायरे तक ही रह गई थी उर्दू-इनआम-इक्राम8 से ही ज़िम्मेदारी पूरी हो जाती थी। सरकार हर साल-छह महीने में शायरों और अदीबों9 में इनआम बाँट देती थी। काम चल रहा था और सरकार की नज़रें-करम10 से उर्दू के अलफ़ाज़ बेजान हो रहे थे। बेज़रर11. मौजूद तक़ाज़ों से बेख़बर-वे सँपोलिए नहीं थे। मुख्यमन्त्री को डस नहीं सकते थे। कारोबार चल रहा था उनका, उनके प्रान्त का। हर तरफ़ कुशल मंगल था।


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